एक चेहरा है जिसे दिल से लगा रक्खा है
क्या कहूं इश्क में क्या हाल बना रक्खा है
क़ैद में घुटती हुई जीस्त से बेहतर है मौत
डर के जीने में भला ख़ाक मज़ा रक्खा है
राह तकते तेरी आँखों में नमी भी भर ली
और बिस्तर पे गमे-इश्क सजा रक्खा है
लूट कर मेरा सुकूं, गम मुझे देने वाले
तेरा हर जख्म कलेजे से लगा रक्खा है
किस कफस में है ये जुर्रत जो मुझे क़ैद करे
मैं ने हर शाख पे अब खुद को बिठा रक्खा है
जीत जाऊँगा अंधेरों से, यकीं है ये 'अशोक'
एक नन्हा सा दिया माँ ने जला रक्खा है
*क़फ़स -- पिंजरा
------- शायर " अशोक "